प्रो. प्रदीप कुमार माथुर
नई दिल्ली। पिछले दिनों जब हमारे सारे देश का ध्यान चीन के साथ हो रहे सीमा संघर्ष पर केंद्रित था, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने एक बहुत अजीब हरकत की। पाकिस्तान की संसद में बोलते हुए उन्होंने कुख्यात आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को शहीद घोषित कर दिया। उनके वक्तव्य से उनके मित्र और विरोधी सभी सन्नाटे में आ गए।यह कह कर उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि पाकिस्तान चाहे जितना भी नकारे उसका जुड़ाव आतंक के साथ ही है जो इस्लाम के नाम पर विश्व में किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री इमरान खान का बयान एक तरह से भारत और अमेरिका जैसे तमाम देशो द्धारा पाकिस्तान पर आतंकी देश होने के आरोप का कबूलनामा था। इसके साथ साथ इमरान खान ने यह भी खतरा उठाया कि उनके बयान के बाद फाटा (FATA) के सदस्य देश अपनी अगली बैठक में पाकिस्तान को फाटा (FATA) की काली सूची में न डाल दे। यदि ऐसा हुआ तो पाकिस्तान की जर्जर अर्थव्यवस्था को बहुत बड़ा आघात लगेगा।
प्रश्न यह है की प्रधानमंत्री इमरान खान ने ऐसा आत्मघाती बयान क्यों दिया? वह क्या मज़बूरी है जिसके कारण पाकिस्तान इस्लामी आतंकवाद से अपना पीछा नहीं छुड़ा पा रहा है। क्या पाकिस्तान के हुक्मरान यह नहीं समझते है की पाकिस्तान ने आतंकवाद के कारण विश्वपटल पर अपने को कमजोर किया है और तमाम अच्छे मित्र गँवाये है। वास्तव में पाकिस्तान और आतंकवाद के इस अटूट सम्बन्ध को समझने के लिए हमें इतिहास में जाना पड़ेगा। एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान के आतंकी मनोवृति का जन्म कश्मीर पर कबाइलियों के हमले (1947-48) के साथ देखा जा सकता है।इस आक्रमण द्धारा पाकिस्तान ने कश्मीर के एक भाग पर अनाधिकृत कब्ज़ा कर लिया और बाद में यह कब्ज़ा उसकी विदेशनीति का एक अंग बन गया। इसी तरह पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के कुछ क्षेत्रों पर भी अपना कब्ज़ा जमाया। पर समस्या इससे कही अधिक गहरी है। इस्लामिक स्टेट को परिभाषित न कर पाने और उसको संवैधानिक स्वरुप न दे पाने के कारण पाकिस्तान में शुरु से ही अनिश्चितता की स्थित बनी हुई है। इससे इस्लामी विचारधारा का कार्ड खेलना और उसे जारी रखना सबको बहुत पसंद आना था। प्रत्येक व्यक्ति ने खुद को बेहतर मुस्लिम और पाकिस्तान की इस्लामिक विचारधारा के बेहतर संरक्षक के रुप में प्रस्तुत करने की कोशिश की। इस तरह इस्लामिक विचारधारा बहुत कठोर होती गई और उदारवाद, प्रगतिशीलता और धर्मनिरपेक्षता जैसे आधुनिक विचारों को पीछे छोड़ते हुए पाकिस्तान ने खुद को मध्ययुगीन अंधकार की ओर ढ़केल दिया।
पाकिस्तान की स्थापना के प्रारंभिक वर्षों में एक और समस्या भी आई दो राष्ट्र के सिद्धांत को प्रतिपादित और पाकिस्तान की मांग करने वाले अधिकांश मुस्लिम लीगी नेता उत्तर प्रदेश और बिहार से थे विभाजन के बाद जब वह लोग पाकिस्तान गए तब उन्होंने पाया कि पंजाब और सिंध में उनका कोई जनाधार नहीं था इसलिए जनप्रिय बनने और अपनी सार्थकता बनाए रखने के लिए उन्होंने धार्मिक कट्टरता का सहारा लिया।इस तरह कट्टर धार्मिक विचारधारा पाकिस्तान की राजनीति का आवश्यक अंग बनती गई। पाकिस्तान में इस्लाम को राष्ट्र का आधार बनने को लेकर शुरू से वहां की राजनीति वाद-विवाद में ही उलझी रही। कौन कितना अच्छा और कितना सच्चा मुसलमान है जैसे मसलों में ही विचार-विमर्श होता रहा जो कि पाकिस्तान के निर्माण के 73 वर्ष बाद भी लगातार जारी है।
ब्रिटिश राज्य में रावलपिंडी भारतीय सेना का कमांड ऑफिस था। सेना में पंजाबी पठान और बलूच बड़ी संख्या में थे। विभाजन के बाद गठित पाकिस्तानी सेना में इनका अनुपात और प्रभाव दोनों बढ़ा। जनाधार विहीन मुस्लिम लीग के नेताओं की तुलना में सेना के अधिकारी भारी पड़े। ब्रिटिश राज्य की सेना में मुख्यतः तीन तरह के बड़े अफसर होते थे। एक वह जो अपने आचार-विचार में पूरी तरह अंग्रेज थे और जिनके समकक्ष ग़ैर-सैनिक नौकरशाहों को ब्राउन साहब या काले अंग्रेज कहा जाता था। दूसरे वह लोग जो मुसलमान होते हुए भी गंगा-जमुना तहजीब पर विश्वास रखते थे और कट्टरतावाद विरोधी मुसलमान थे। कुछ थोड़े ही अफसर धार्मिक कट्टरतावादी मनोवृति के थे।
जब धार्मिक कट्टरतावादी राजनीतिक नेताओं से सेना का संघर्ष प्रारंभ हुआ तब सेना में धर्म विमुख और धर्मनिरपेक्ष अफसरों के स्थान पर धार्मिक कट्टरतावादी अधिकारियों का वर्चस्व भी बढ़ने लगा। इसकी परिणीति जनरल जिया उल हक के शासनकाल में हुई। प्रधानमंत्री जुल्फिकार भुट्टो की लोकतांत्रिक सरकार को अपदस्थ कर सत्ता हथियाने वाले जनरल हक पांच वक्त की नमाज पढ़ते थे। उनका मानना था कि अगर धार्मिक अनउदारवाद को पाकिस्तान की राष्ट्रीय विचारधारा नहीं बनाना था तो फिर पाकिस्तान बनाने की आवश्यकता ही क्या थीॽ इससे तो हम भारत में ही रहते।
जनरल अयूब खान जनरल याहिया खान और जुल्फिकार भुट्टो की गलतियों के कारण आज पाकिस्तानी सेना पर मुल्ला मौलवियों का बहुत गहरा प्रभाव है। इसी कारण सत्ता संचालन के जो दिशानिर्देश बनते हैं वह पाकिस्तान की भू राजनीतिक तथा आर्थिक पहल को विकास विरोधी बनते हैं।
उग्र धार्मिक राष्ट्रवाद के कारण आज पाकिस्तान ऐसी विरोधाभास का शिकार है जो इसकी प्रगति के मार्ग में रोड़ा बने हुए हैं और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को रसातल में लिए जा रहे हैं। पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना शिया मुस्लिम थे। आज पाकिस्तान में कठ्ठमुल्ले शियाओं को काफिर घोषित करने की मांग कर रहे हैं और वहां बेलगाम घूम रहे आतंकवादी लोग शियाओं की मस्जिदों पर हमले कर बेकसूर लोगों को मार रहे हैं। बलूचिस्तान में असंतोष और इरान से खराब संबंध भी कठ्ठमुल्लों द्वारा प्रभावित शिया विरोधी सत्ता नीति का ही परिणाम है।
आज आतंकवाद पाकिस्तान के गले की हड्डी बना हुआ है। पाकिस्तानी नेता चाहे कितनी भी सफाई देते फिरते रहें और कहते रहें कि पाकिस्तान आतंकवाद को समाप्त करने के मामले में गंभीर है, लेकिन यह बात वैश्विक पटल पर कोई मानने को तैयार नहीं है। इस वजह से पाकिस्तान अपने पुराने मित्र देशों की सहानुभूति भी लगातार खोता जा रहा है। पिछले माह भरसक कोशिश करने के बाद भी इस्लामी देशों के संगठनों ने कश्मीर पर पाकिस्तान का साथ नहीं दिया। यह पाकिस्तान के लिए एक बहुत बड़ा झटका था।
वैश्विक आतंकवाद के सरगना ओसामा बिन लादेन का पाकिस्तान में मिलना और अमेरिका द्वारा पाकिस्तान में घुसकर उसको मारे जाने के बाद से पश्चिमी देशों का पाकिस्तान पर से विश्वास उठ गया है। जिस अमेरिका के बलबूते पर पाकिस्तान 40-50 साल फलता-फूलता रहा आज उसी अमेरिका को पाकिस्तान के नेता और मीडिया अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं।
आतंकवाद को आश्रय देकर और उसे अपनी राजनीतिक नीति का अंग बनाकर पाकिस्तान ने शांतिप्रिय इस्लाम धर्म को आतंकवाद का पर्याय बना दिया है। इस कारण भी तमाम मुस्लिम राष्ट्र अंदर ही अंदर पाकिस्तान से नाराज हैं और उससे किनारा कर रहे हैं। पर समस्या यह है कि पाकिस्तान के हुक्मरान कट्टरतावाद के इस अंधे कुए से बाहर नहीं निकल पा रही है जो उन्होंने खुद खोदा है। यह ही वह मज़बूरी है जो पाकिस्तान को आतंकवाद से उभरने नहीं देती है।
स्वतंत्र लेखन में रत वरिष्ठ पत्रकार/संपादक प्रोफेसर प्रदीप माथुर भारतीय जनसंचार संसथान (आई. आई. एम. सी.) नई दिल्ली के पूर्व विभागाध्यक्ष व पाठ्यक्रम निदेशक है। वह वैचारिक मासिक पत्रिका के संपादक व् नैनीताल स्थित स्कूल ऑफ इंटरनेशनल मीडिया स्टडीज (सिम्स) के अध्यक्ष है।
प्रो. प्रदीप कुमार माथुर आई. सी.एन. ग्रुप के एडवाइजर & सीनियर कंसल्टिंग एडिटर है।स्वतंत्र लेखन में रत वरिष्ठ पत्रकार/संपादक प्रोफेसर प्रदीप माथुर भारतीय जनसंचार संसथान (आई. आई. एम. सी.) नई दिल्ली के पूर्व विभागाध्यक्ष व पाठ्यक्रम निदेशक है। वह वैचारिक मासिक पत्रिका के संपादक व् नैनीताल स्थित स्कूल ऑफ इंटरनेशनल मीडिया स्टडीज (सिम्स) के अध्यक्ष है।